اسفندیار فیاضی یکی از شاعران پر آوازه شعر محلی خرسان است. شعر" ای خوش او روزا" سروده وی و در مورد زیبایی های دوران قدیم است.
اِی خُوش او روزِی کِه ما دُورونه داشتِم مِردُما | گیوِیِ جالِزقِه، تِنبونِه داشتِم مِردُما | |
یَک سِرایِ خاکیِ خِی چَن اُطاق کَه گِلی | مُدبَخِه دُو گُوشِیِش دِگدونِه داشتِم مِردُما | |
کندوکه پر گندمه خی بره یا چوشه | تخت شیراز و یک نودونه داشتم مردما | |
کُوچِهِی تَنگِ و تُروُشِ جوُی اووِ دو مِیو | خُونه فِنجُونِه وُ فِنجُونِه داشتِم مِردُما | |
بِچِّهی خُوردی اگر وَر وَق مِشو از بَهراو | از طِناب و پارچَه یَک بَچونِه داشتِم مِردُما | |
مُرغ داشتِم گُووِ داشتِم خِی سه چار خَر دی سرا | از بِرِی هَر خَر یَک پَهلونِه داشتِم مِردُما | |
هَر سِرِی چَن خونَه داش هر خونَه یَک خونه وار | یَک گروه بِچِه شیطونِه داشتِم مِردُما | |
رویِ کُرسی مُجمَعِی از بَدُمُ و کِشمش نِخاد | پُر مِبو وَختِه که یَک مِهمونِه داشتِم مِردُما | |
صوفِه داشتِم دِ مُون صوفَه مِن گُوکارِ بو | ما دِ ای گُوکارِ صوفَه تونِه داشتِم مِردُما | |
بَعضِه زِنها نَخ مِرِش خِی چَرخ نَخ ریسی گُلُم | ما بِرِی ای کار خو دِگدونِه داشتِم مِردُما | |
شُو دِ خونَه بَعضِه زِنها تا صُحُب چِرخوک مِکی | دو طِرَف مام چایی و قِلیونِ داشتِم مِردُما | |
دِی بِرِ کوچَه خِراسِه دو بِرِش یَک دَنگِ بو | دو طِرِفتَر خونِه حِیونِه داشتِم مِردُما | |
وَر دو مثقال نُون شیراز زِندگی ما طِی مِشو | شُکرِ حَق کِردِم کِه یَک تِفتونِ داشتِم مِردُما | |
دی جِهیزِی دُختِرا چِرشووِ تُوتِه سَرُقِه | کاردِ آشِه اَنبُر و چَقونِه داشتِم مِردُما | |
طاس حَمُومه و سَنگ پایِ وُ یَک لُنگیِ | رُوشیِی، کیسی و یک صَبونه داشتِم مِردُما | |
رَحم داشتِم وَر فِقیرا، بی کِسا، زن بیوه ها | وَر چنی کارا بِلا گِردونِه داشتِم مِردُما | |
مَکتَبِه داشتِم و یک مُلّایِ خِی چُو وُ فِلَک | ما ازی مُلّا دِلِ پُرخونِه داشتِم مِردُما | |
مِردُمِی قانِع بِدِم بی شیله پیله با صِفا | بِرکِتا از بَرف و بارونه داشتِم مِردُما | |
حالِ خِی ای قِرّ و فِرّا ای دِلامِن زَنگ زِدَه | کاش وَری دَردِ دِلا دِرمونِ داشتِم مِردُما | |
کاش وَر مِهر و مُحِبَّت زِندگیر پِیوَند زِنِم | کاش مِثلِ او قدیم جولونِ داشتِم مِردُما | |
کاش ای زِنها نِبو فَرماندهِ هَر خونه | کاش وَر ای خانما فِرمونِه داشتِم مِردُما | |
کاش چُنگِ پایِ ما از فرش ما وُو بَر نِبو | وَر هَوسهایِ دِلا دَلونِه داشتِم مِردُما |
منبع: فیاضی، اسفندیار، ای خوش او روزا، چاپ اول: 1385، مشهد : نشر پشنگ
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