بخشی از شعر محلی "قلندر دل مترقونه" از شاعر گرانقدر آقای اسفندیار فیاضی به مناسبت فرا رسیدن عید نوروز
دِمِ عیدِس و مِردُم روز و شُو قَلی مِتِکُونَه | سِرار جَرُو کُنَن چَن تِه دو تِم اُو وَمِپَشُونَه | |
کُلُمبَه وُ قُطاب و زِنجِفیلی راس کُنَن زِنها | و ای مَدِربُزرگاهِم شِدَه سِرگَرم اوسونَه | |
بِرِی عید دیدنی مِردُم میَن از دور و از نِزدیک | دِ ای نوروز عروسُو، خینسوریها فِرَوونِه | |
دِ بازارا فِرَووس جنس و دیکونا پُر از میوَه | از انگور خیار و پرتقال و موزو هَندونَه | |
تِمومِ کسبا هِی داد زِنَن حرّاجی، حرّاجی | به ای فَند و فِلوسا کَسِبا مار وامِبِجّونَه | |
مِریزَه نَم نَم بَرِش وری تَه کوچه هِی خَکی | زِ بوی عطرِ کَه گِل موم شَدُم سرمست و دیوونَه | |
دِپشت القِر بومِ حَموم ای اَسِمو جُلّا | مِجول ورمندزَن یَکُم همه یِش خور وَر مِخَرونَه | |
گِلِی بِچِّی دِمومِ کوجه ها سِرمستِ و شِنگولَن | سه چارتا خِی پِلِخمو وَر چِغُوکا سنگ مِپِرّونَه | |
دِ سِر هر کوچَه بِنشِستیَن یک بُرِّ بیکارَه | یَکه جوک ورمِگَه ای بُرِّ بیکارِر مِخِندونَه | |
دِ دورِ سفره هفت سین سِماق و سکَّه وُ سُوزی | و سیرِ و سیبِ و سنجد بُو وُ یَک کَمه سِیَه دونَه | |
دِ جیبِ بچه ها کشمش نِخود، تخمرغ رِنگ کردَه | تِمومِ باغچه ها پُر گُل ولی خونِی مو وِیرونَه | |
بِچِی همسیه پولدار مو خِی گیوه هِی نُووِش | دِ پیشِ بچّه هی بیچَرِه یُم هی خور مِکِلچونَه | |
دِ خو دیدُم که اَعییونُم لِباسِ نُ دِبَر کِردُم | دِ روی سفره شیشلیک و کباب، مرغ و فسنجونَه | |
بِخُردُم هر چه مَیِستُم وُ وَر رویِش دو نوشابَه | ولی خُووِ مو بو اوسونه اُشتُرُ پِندونُه |
منبع: فیاضی، اسفندیار، ای خوش او روزا، چاپ اول: 1385، مشهد : نشر پشنگ
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