شعر محلی "سیزده بدر" سروده ای از شاعر محبوب شهرستان گناباد آقای اسفندیار فیاضی است.
اَمروز چه غوغایِ دی کوه و کِمَرِس | صحرا و بِیَوو تُو نِگا پُر زِ نِفَرس | |
از جیغ و جغالِ بچه ها گوشِ مو کَرِس | دی روز مِگَن سیزدَه به نَحسی دِ گُذرِس | |
گفتم چه خِبَرِس؟ مِگن سیزده بِدَرِس | ||
وَر بسته همه بارو مِرَف وَر دِر رو صَحرا | بُقچَه دِ بِغَل تُنگ دِ دَست داش زُلیخا | |
عُن عُن مزه منصوره و لِخ لِخ مِزه لیلا | هر کَرَه دِ دَس تُورَه دِ رُو دوشِ پیَرِس | |
گفتم چه خِبَرِس؟ مِگن سیزده بِدَرِس | ||
ور کَپِّ اتول ده زَ و ده بِچَّه سِوارَه | رو دومن اونا دو سبد سیب و خیارَه | |
رانندَه کمه مُوندَه و بیحال و خُمارَه | امروز گناه خِیلِس و عُمرا به هَدَرِس | |
گفتم چه خِبَرِس؟ مِگن سیزده بِدَرِس | ||
مِردا و زِنا دوش به دوش دِستَه به دِستَه | جیبِ بِچه ها پر نخود و کِشمِش و پِستَه | |
دی زیر دِرِختا بچه ها باد دِبستَه | هی سیزده بِدَر چارده به تو سالِ دِگَرِس | |
یَک عدّه با مسخره گی شیشَه دِ دَستَن | یَک عدّه نَهفَهمِه عرق خورده و مستَن | |
یک چن ته دِ ای گوشه کِنار پلّه مِجَستَن | گویا که دِ ای دشت و دِمَن محشرِ خَرِس | |
گفتم چه خِبَرِس؟ مِگن سیزده بِدَرِس |
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چن دیکِ پِلو خِی خورش و گوش دِبار بو | چن شیشه نوشابه دِ او بِر دِ قِطار بو | |
یک عدّه لامذهبِ سِرگرمِ قمار بو | دی مُونِ قمار پهن و پلار سکّه و زَرِس | |
گفتم چه خِبَرِس؟ مِگن سیزده بِدَرِس |
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امروز دِ صحرا و دِ دَشت و دِ بیوو | بازارِ گناه گَرمِس و جولو مِدَه شِیطو | |
هی دید مِزَه از دور هَف هَش ملحدِ پُررو | از بارِ گناه عرشِ خدا زیر و زِبَرِس | |
گفتم چه خِبَرِس؟ مِگن سیزده بِدَرِس |
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تُنبِک مزه یَکه، دو تِه بی سازِ مِرِخصی | پَن شیش پسرِ لاتِ دِغلباز مِرخصی | |
مهشید و سهیلا و فرحناز مِرخصی | گُویی کمراشِن همه پر نِرمه فِنَرِس | |
گفتم چه خِبَرِس؟ مِگن سیزده بِدَرِس | ||
دخترو پسر دوش به دوش شونه به شونه | دی مُون گُلِی لاله مِرخصَه و مِخُونَه | |
ای کاش پِیِرو مَیَر ای نسل بِدونَه | ای راه که اینا مِرَه پُر خُوف و خِطَرِس | |
گفتم چه خِبَرِس؟ مِگن سیزده بِدَرِس |
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ای کاش که ای سُنِّت بیمار وَرِفتََه | خشم و غضب و غمزه دلدار وَرِفتَه | |
ای سیزده نه یَک با که صد بار وَرفتَه | دی روز که از دین نه نشون و نه اَثَرِس | |
گفتم چه خِبَرِس؟ مِگن سیزده بِدَرِس | ||
دیدُم که دِ ای جمع مویم پینه ناجور | نَفسُم شده بو رهبر و عقلُم شِدَه بو کور | |
ناگاه شنیدم مُو که وجدان مِگَه از دور | "فیاض" وَ پِتُو شا که او طِرفَه نِسَرِس | |
گفتم چه خِبَرِس؟ مِگن سیزده بِدَرِس |
منبع: فیاضی، اسفندیار، ای خوش او روزا، چاپ اول: 1385، مشهد : نشر پشنگ
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